स्वरचित मौलिक रचना
कविता
"मैं झुकने को नहीं कहता"
मैं झुकने को नहीं कहता।
मैं रुकने को नहीं कहता।
मैं सोचने को हूँ कहता।
आत्मचिंतन को हूँ कहता।
जो बीत गयी वो बीत गयी।
अब आगे की बात करो।
थोड़ा मैं बढूं , कुछ तुम बढ़ो।
जीवन का नया स्वाद चखो।
-
© निशान्त पंत
कविता
"मैं झुकने को नहीं कहता"
मैं झुकने को नहीं कहता।
मैं रुकने को नहीं कहता।
मैं सोचने को हूँ कहता।
आत्मचिंतन को हूँ कहता।
जो बीत गयी वो बीत गयी।
अब आगे की बात करो।
थोड़ा मैं बढूं , कुछ तुम बढ़ो।
जीवन का नया स्वाद चखो।
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© निशान्त पंत